इस्लाम में किताबों पर ईमान और क़ुरआन-ए-करीम

Salih Mirza Aka

इस्लाम में किताबों पर ईमान, ईमान के आधारभूत सिद्धांतों में से एक है और यह उस पवित्र किताबों पर विश्वास करना है, जिन्हें अल्लाह ने मानवता के मार्गदर्शन के लिए भेजा है। ये किताबें, अल्लाह के वाही को लोगों तक पहुँचाने के लिए नबियों को भेजी गईं और मानवता को सही रास्ते पर लाने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती हैं। इस्लाम के अनुसार, तौरेत, जबूर, इंजील और क़ुरआन-ए-करीम इन किताबों में शामिल हैं। हालांकि क़ुरआन-ए-करीम, पूर्व की किताबों में दिए गए संदेशों की पुष्टि और पूर्णता के रूप में अंतिम दिव्य किताब है (बकरा, 2/2; माईदा, 5/48)।

क़ुरआन, अल्लाह का वचन है और यह पैगंबर हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) पर 610 ई. में जिब्राइल (अलैहिस्सलाम) के माध्यम से उतरा था। क़ुरआन एक पूजा का मार्गदर्शक होने के साथ-साथ नैतिक और कानूनी नियमों से भरी एक जीवन की किताब है। क़ुरआन, जो अनादि और शाश्वत संदेश ले कर आता है, अल्लाह द्वारा इसकी रक्षा करने का वादा (हिज्र, 15/9) किए जाने के साथ, समग्र मानवता के लिए एक मार्गदर्शन की रोशनी है। इसलिये, जिस दिन से क़ुरआन उतरा, तब से लेकर अब तक सारे क़ुरआन एक ही हैं। क़ुरआन पर ईमान लाना, इसके शिक्षाओं को स्वीकार करना और उन्हें अपने जीवन में अपनाने की कोशिश करना, इस ईमान का हिस्सा है।

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